सरदार वल्लभ भाई पटेल - Sardar Vallabhbhai Patel

सरदार वल्लभ भाई पटेल (गुजराती: સરદાર વલ્લભભાઈ પટેલ ; 31 अक्टूबर, 1875 - 15 दिसम्बर, 1950) भारत के स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी एवं स्वतन्त्र भारत के प्रथम गृहमंत्री थे। सरदार पटेल बर्फ से ढंके एक ज्वालामुखी थे। वे नवीन भारत के निर्माता थे। राष्ट्रीय एकता के बेजोड़ शिल्पी थे। वास्तव में वे भारतीय जनमानस अर्थात किसान की आत्मा थे।

भारत की स्वतंत्रता संग्राम मे उनका महत्वपूर्ण योगदान है। भारत की आजादी के बाद वे प्रथम गृह मंत्री और उपप्रधानमंत्री बने। उन्हे भारत का 'लौह पुरूष' भी कहा जाता है।

आज हम जिस विशाल भारत को देखते हैं उसकी कल्पना बिना वल्लभ भाई पटेल के शायद पूरी नहीं हो पाती। सरदार पटेल एक ऐसे इंसान थे जिन्होंने देश के छोटे-छोटे रजवाड़ों और राजघरानों को एक कर भारत में सम्मिलित किया। उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति, नेतृत्व कौशल का ही कमाल था कि 565 देशी रियासतों का भारतीय संघ में विलय कर सके। भारत के प्रथम गृह मंत्री और प्रथम उप प्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल को लौह पुरुष का दर्जा प्राप्त था। उनके द्वारा किए गए साहसिक कार्यों की वजह से ही उन्हें लौह पुरुष और सरदार जैसे विशेषणों से नवाजा गया। 

बिस्मार्क ने जिस तरह जर्मनी के एकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई उसी तरह वल्लभ भाई पटेल ने भी आजाद भारत को एक विशाल राष्ट्र बनाने में उल्लेखनीय योगदान दिया। बिस्मार्क को जहां जर्मनी का ‘आयरन चांसलर’ कहा जाता है वहीं पटेल भारत के लौह पुरुष कहलाते हैं। हममें से बहुत कम लोगों को भारतीय समाज के प्रति सरदार पटेल के योगदान के संबंध में जानकारी है। आज हम भारत के जनक सरदार पटेल के उन अनछुए पहलुओं से आपको रूबरू कराएंगे, जिनके बारे में आपको शायद ही पता हो|

अपने समकालीन नेताओं जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी की तरह उनका जन्म किसी धनी परिवार में नहीं, बल्कि एक किसान परिवार में हुआ था। स्वतन्त्रता आन्दोलन में सरदार पटेल का सबसे पहला और बडा योगदान खेडा संघर्ष में हुआ। गुजरात का खेडा उन दिनों भयंकर सूखे की चपेट में था। किसानों ने अंग्रेज सरकार से भारी कर में छूट की मांग की। जब यह स्वीकार नहीं किया गया तो सरदार पटेल ने किसानों का नेतृत्व किया और उन्हें कर न देने के लिये प्रेरित किया। अन्त में सरकार झुकी और उस वर्ष करों में राहत दी गर्इ। यह सरदार पटेल की पहली सफलता थी।

पटेल का जन्म नडियाद, गुजरात में एक पाटीदार कृषक परिवार में हुआ था। वे झवेरभाई पटेल एवं लाडबा की चौथी संतान थे। सोमाभाई, नरसीभाई और विट्टलभाई उनके बडे भार्इ थे। उनकी शिक्षा मुख्यतः स्वाध्याय से ही हुई। खराब आर्थिक स्थिति होने के बावजूद पटेल के पिता ने उनकी शिक्षा के लिए कर्ज लेकर धन का इन्तजाम करने की सोची। लेकिन बल्लभ भाई को यह मंजूर नहीं था। इसका नतीजा यह हुआ कि उन्होंने लोगों से किताबें मांग कर पढ़ाई की और अव्वल रहे। बाद में खुद के कमाए पैसों से लंदन जाकर उन्होंने बैरिस्टर की पढाई की और वापस आकर अहमदाबाद में वकालत करने लगे।

बचपन से ही उनके परिवार ने उनकी शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया। हालांकि 16 साल में उनका विवाह कर दिया गया था पर उन्होंने अपने विवाह को अपनी पढ़ाई के रास्ते में नहीं आने दिया। 22 साल की उम्र में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की और ज़िला अधिवक्ता की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए, जिससे उन्हें वकालत करने की अनुमति मिली। अपनी वकालत के दौरान उन्होंने कई बार ऐसे केस लड़े जिसे दूसरे निरस और हारा हुए मानते थे। उनकी प्रभावशाली वकालत का ही कमाल था कि उनकी प्रसिद्धी दिनों-दिन बढ़ती चली गई।

गम्भीर और शालीन पटेल अपने उच्चस्तरीय तौर-तरीक़ों और चुस्त अंग्रेज़ी पहनावे के लिए भी जाने जाते थे, लेकिन गांधीजी के प्रभाव में आने के बाद उन्होंने खादी को अपनाया। उन्होंने कई बार विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी और आंदोलनों में भाग लिया था। जवाहर लाल नेहरू पाश्चात्य संस्कृति और अंग्रेजियत को पसंद करते थे, जबकि सरदार पटेल अंग्रेजियत से दूर थे।

सरदार पटेल के प्रधानमंत्री न बनने के पीछे कई कहानियां हैं। लेकिन यह भी सच है कि अगर सरदार पटेल को जवाहर लाल नेहरू के बदले आजाद भारत का प्रथम प्रधानमंत्री बनने का मौका मिलता तो इतिहास कुछ और होता। जिस चीज के लिए इतिहासकार हमेशा सरदार वल्लभ भाई पटेल के बारे में जानने के लिए इच्छुक रहते हैं वह थी उनकी और जवाहरलाल नेहरू की प्रतिस्पर्द्धा। सब जानते हैं 1929 के लाहौर अधिवेशन में सरदार पटेल ही गांधी जी के बाद दूसरे सबसे प्रबल दावेदार थे पर मुसलमानों के प्रति पटेल की हठधर्मिता की वजह से गांधीजी ने उनसे उनका नाम वापस दिलवा दिया। 1945-1946 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए भी पटेल एक प्रमुख उम्मीदवार थे, लेकिन गांधीजी के नेहरू प्रेम ने उन्हें अध्यक्ष नहीं बनने दिया। कई इतिहासकार यहां तक मानते हैं कि यदि सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनने दिया गया होता तो चीन और पाकिस्तान के युद्ध में भारत को पूर्ण विजय मिलती, लेकिन गांधी के जगजाहिर नेहरू प्रेम ने उन्हें प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया। 

कांंग्रेस पार्टी पर उनका अभूतपूर्व प्रभाव था। पार्टी की जिस बैठक में महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू मौजूद थे, उस बैठक में कांग्रेस कमेटी ने पार्टी अध्यक्ष पद के लिए नेहरू के नाम का प्रस्ताव नहीं रखा था। वर्ष 1946 में कांग्रेस पार्टी जब अपने अध्यक्ष पद का चुनाव कर रही थी, तब बहुमत सरदार पटेल के समर्थन में था। लेकिन जब सरदार को इस बात की जानकारी मिली कि जवाहर लाल नेहरू किसी के अधीन के नहीं बल्कि स्वतंत्र होकर काम करना चाहते हैं और इससे पार्टी के दो धड़ों में बंटने की आशंका थी, तब उन्होंने खुद अध्यक्ष पद की दौड़ से अलग कर लिया।

आजादी के बाद जब रिसायतें अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखना चाहतीं थीं, तब सरदार पटेल आगे आए और इन्हें एक साथ आने के लिए बाध्य किया। सही मायने में उन्हें आधुनिक भारत का जनक कहा जाना चाहिए।  सरदार पटेल ने आज़ादी के ठीक पूर्व ही पीवी मेनन के साथ मिलकर कई देसी राज्यों को भारत में मिलाने के लिये कार्य आरम्भ कर दिया था। पटेल और मेनन ने देसी राजाओं को बहुत समझाया कि उन्हें स्वायत्तता देना सम्भव नहीं होगा। इसके परिणामस्वरूप तीन को छोडकर शेष सभी रजवाडों ने स्वेच्छा से भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 15 अगस्त, 1947 तक हैदराबाद, कश्मीर और जूनागढ़ को छोड़कर शेष भारतीय रियासतें ‘भारत संघ’ में सम्मिलित हो गईं थीं।

हैदराबाद और जूनागढ़ के नवाब ने भारत में अपने रियासतों के विलय से साफ इन्कार कर दिया था। सरदार पटेल ने अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए सेना का इस्तेमाल किया। जूनागढ़ के नवाब के विरुद्ध जब बहुत विरोध हुआ तो वह भागकर पाकिस्तान चला गया और जूनागढ भी भारत में मिल गया। जब हैदराबाद के निजाम ने भारत में विलय का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया तो सरदार पटेल ने वहां सेना भेजकर निजाम का आत्मसमर्पण करा लिया। माना जाता है पटेल कश्मीर को भी बिना शर्त भारत से जोड़ना चाहते थे पर नेहरू जी ने हस्तक्षेप कर कश्मीर को विशेष दर्जा दे दिया। नेहरू जी ने कश्मीर के मुद्दे को यह कहकर अपने पास रख लिया कि यह समस्या एक अंतरराष्ट्रीय समस्या है। अगर कश्मीर का निर्णय नेहरू की बजाय पटेल के हाथ में होता तो कश्मीर आज भारत के लिए समस्या नहीं बल्कि गौरव का विषय होता।

जवाहर नेहरू कश्मीर समस्या का समाधान नहीं कर सके। कश्मीर मसले पर वह एक दिशाहीन राजनेता साबित हुए। जबकि सरदार पटेल के पास इस समस्या का भी समाधान था। यह सरदार पटेल की ही नीति थी कि भारतीय सेना सही समय पर कश्मीर पहुंच गई और इसे भारत का अंग बना लिया गया। सरदार पटेल भारतीय संविधान सभा के महत्वपूर्ण सदस्य थे, जिन्होंने भारत के संविधान को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 

सरदार पटेल ने भारतीय नागरिक सेवाओं (आईसीएस) का भारतीयकरण कर इन्हें भारतीय प्रशासनिक सेवाएं (आईएएस) बनाया। अंग्रेजों की सेवा करने वालों में विश्वास भरकर उन्हें राजभक्ति से देशभक्ति की ओर मोड़ा। यदि सरदार पटेल कुछ वर्ष जीवित रहते तो संभवत: नौकरशाही का पूर्ण कायाकल्प हो जाता।

       

कैप्टन विक्रम बत्रा - Captain Vikram Batra


नाम
कैप्टन विक्रम बत्रा
जन्मतिथि एवं जन्मस्थान
९ सितम्बर १९७४ को हिमाचल प्रदेश के एक छोटे से गाँव घुग्गर में जन्मे
रेजीमेंट
तेरहवीं बटालियन, जम्मू कश्मीर राइफल्स
पिता का नाम
जी.एल. बत्रा
माता का नाम
कमलकांता बत्रा
युद्ध जिसमे परमवीर चक्र मिला
कारगिल
के बारे में
आरंभिक जीवन पालमपुर निवासी जी.एल. बत्रा और कमलकांता बत्रा के घर 9 सितंबर 1974 को दो बेटियों के बाद दो जुड़वां बच्चों का जन्म हुआ। माता कमलकांता की श्रीरामचरितमानस में गहरी श्रद्धा थी तो उन्होंने दोनों का नाम लव-कुश रखा। लव यानी विक्रम और कुश यानी विशाल। पहले डीएवी स्कूल, फिर सेंट्रल स्कूल पालमपुर में दाखिल करवाया गया। सेना छावनी में स्कूल होने से सेना के अनुशासन को देख और पिता से देश प्रेम की कहानियां सुनने पर विक्रम में स्कूल के समय से ही देश प्रेम प्रबल हो उठा। स्कूल में विक्रम शिक्षा के क्षेत्र में ही अव्वल नहीं थे, बल्कि टेबल टेनिस में अव्वल दर्जे के खिलाड़ी होने के साथ उनमें सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भाग लेने का भी जज़्बा था। जमा दो तक की पढ़ाई करने के बाद विक्रम चंडीगढ़ चले गए और डीएवी कॉलेज चंडीगढ़ में विज्ञान विषय में स्नातक की पढ़ाई शुरू कर दी। इस दौरान वह एनसीसी के सर्वश्रेष्ठ कैडेट चुने गए और उन्होंने गणतंत्र दिवस की परेड में भी भाग लिया। उन्होंने सेना में जाने का पूरा मन बना लिया और सीडीएस (सम्मिलित रक्षा सेवा) की भी तैयारी शुरू कर दी। हालांकि विक्रम को इस दौरान हांगकांग में भारी वेतन में मर्चेन्ट नेवी में भी नौकरी मिल रही थी, लेकिन देश सेवा का सपना लिए विक्रम ने इस नौकरी को ठुकरा दिया।
सेना में चयन विज्ञान विषय में स्नातक करने के बाद विक्रम का चयन सीडीएस के जरिए सेना में हो गया। जुलाई 1996 में उन्होंने भारतीय सेना अकादमी देहरादून में प्रवेश लिया। दिसंबर 1997 में शिक्षा समाप्त होने पर उन्हें 6 दिसम्बर 1997 को जम्मू के सोपोर नामक स्थान पर सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली। उन्होंने 1999 में कमांडो ट्रेनिंग के साथ कई प्रशिक्षण भी लिए। पहली जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया। हम्प व राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद उसी समय विक्रम को कैप्टन बना दिया गया। इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने का जिम्मा भी कैप्टन विक्रम बत्रा को दिया गया। बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्जे में ले लिया।
शेरशाह के नाम से प्रसिद्ध विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष ‘यह दिल मांगे मोर’ कहा तो सेना ही नहीं बल्कि पूरे भारत में उनका नाम छा गया। इसी दौरान विक्रम के कोड नाम शेरशाह के साथ ही उन्हें ‘कारगिल का शेर’ की भी संज्ञा दे दी गई। अगले दिन चोटी 5140 में भारतीय झंडे के साथ विक्रम बत्रा और उनकी टीम का फोटो मीडिया में आया तो हर कोई उनका दीवाना हो उठा। इसके बाद सेना ने चोटी 4875 को भी कब्जे में लेने का अभियान शुरू कर दिया। इसकी भी बागडोर विक्रम को सौंपी गई। उन्होंने जान की परवाह न करते हुए लेफ्टिनेंट अनुज नैयर के साथ कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतारा।
कैप्टन के पिता जी.एल. बत्रा कहते हैं कि उनके बेटे के कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टीनेंट कर्नल वाय.के.जोशी ने विक्रम को शेर शाह उपनाम से नवाजा था।
अंतिम समय मिशन लगभग पूरा हो चुका था जब कैप्टन अपने कनिष्ठ अधिकारी लेफ्टीनेंट नवीन को बचाने के लिये लपके। लड़ाई के दौरान एक विस्फोट में लेफ्टीनेंट नवीन के दोनों पैर बुरी तरह जख्मी हो गये थे। जब कैप्टन बत्रा लेफ्टीनेंट को बचाने के लिए पीछे घसीट रहे थे तब उनकी की छाती में गोली लगी और वे “जय माता दी” कहते हुये वीरगति को प्राप्त हुये।
16 जून को कैप्टन ने अपने जुड़वां भाई विशाल को द्रास सेक्टर से चिट्ठी में लिखा –“प्रिय कुशु, मां और पिताजी का ख्याल रखना ... यहाँ कुछ भी हो सकता है।
अदम्य साहस और पराक्रम के लिए कैप्टन विक्रम बत्रा को 15 अगस्त 1999 को परमवीर चक्र के सम्मान से नवाजा गया जो उनके पिता जी.एल. बत्रा ने प्राप्त किया। विक्रम बत्रा ने 18 वर्ष की आयु में ही अपने नेत्र दान करने का निर्णय ले लिया था। वह नेत्र बैंक के कार्ड को हमेशा अपने पास रखते थे।

वीरता की कहानी
20 जून 1999 को कैप्‍टन बत्रा ने कारगिल की प्‍वाइंट 5140 से दुश्‍मनों को खदेड़ने के लिए अभियान छेड़ा और कई घंटों की गोलीबारी के बाद आखिरकार वह अपने मिशन में कामयाब हो गए। इस जीत के बाद जब उनकी प्रतिक्रिया ली गई तो उन्‍होंने जवाब दिया, 'ये दिल मांगे मोर,' बस यहीं से इन लाइनों को पहचान मिल गई।

अपने साथियों के साथ मिलकर इन्होने बहुत ही वीरता से अपने कर्तव्य का निर्वहन किया, हालाँकि इस दौरान वो काफी घायल हो गए | फिर भी उन्होंने अपने साथी कैप्टेन अनुज नायर के साथ मिलकर ५ चोटियों पर कब्ज़ा जमाया | लेकिन ७ जुलाई १९९९ की सुबह अपने एक साथी लेफ्टिनेंट नवीन की जान बचाते बचाते शहीद हो गए.......

शहादत दिवस
6 जुलाई, 1999
अन्य
1.       जेपी दत्‍ता की फिल्‍म एलओसी में बॉलीवुड एक्‍टर अभिषेक बच्‍चन ने कैप्‍टन विक्रम बत्रा का किरदार अदा किया था।

2.     
कैप्टन विक्रम बत्रा ने देश की जमीन दुश्मन के चंगुल से वापस पाने के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी लेकिन अब उनका खुद का परिवार अपनी पुश्तैनी जमीन माफिया के चंगुल से बचाने के लिए जूझ रहा है। दुख की बात ये है कि उसके इस संघर्ष में न तो सरकार और न ही प्रशासन का कोई सहयोग मिल रहा है।